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सूक्ति-सुधा]
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(४) तिण्णो हु सि भरणवं मह, कि पुश चिट्ठसि तीर मागओ।
उ०, १०, ३४ टीका--महान् ससार समुद्र तो तर गये, यानी अनन्त जन्ममरण करके चौरासी लाख जीव-योनी में से पार होकर इस उत्तम मनुष्य-भव को तो प्राप्त कर लिया, अब ससार-समुद्र के किनारे पर आकर प्रमाद में क्यो बैठे हुए हो ? साराश यह है कि प्रमाद में जीवन को मत व्यतीत करो।
जं सेयं तं समायरे।
द०, ४, ११ टीका-जो श्रेष्ठ हो उसी का आचरण करना चाहिये । पाप अनिष्ट है, और पुण्य इष्ट है। इसलिये पुण्य, अहिंसा, दया, दान आदि का आचरण करे।
कंखे गुणे जाव सरीर मेउ।
उ०,४,१३ टीका-जब तक शरीर रहे, यानी मृत्यु नही आवे, तब तक जीवन के अंतिम क्षण तक ज्ञान, क्षमा, दया, सतोष, सरलता, विनय आदि गुणो की आराधना और आकांक्षा करता रहे।
जय चिहे मिश्र भाले।
द०,८,१९ टीका-जीवन व्यवहार यत्ना पूर्वक और विवेक वाला बनावे । आवश्यक, परिमित और प्रिय वाणी वोले, आचार और वाणी का व्यवहार आदर्श हो।