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- उपरोक्त ध्येय को परिपूर्ण करने के लिए इन्द्रियो पर निग्रह करने का, सत्य का आचरण करने का, स्वाद को जीतने का, ब्रह्मचर्य के प्रति निष्ठावान् वनने का, और पात्रता का ध्यान रख कर उदार वुद्धि के साथ विभिन्न क्षत्रो मे दान आदि देने का जन-धर्म में स्पष्ट विधान है।
श्री महावीर स्वामी के युग मे लगाकर विक्रम की अठारहवा शताब्दि तक पूजीवाद जैसी अर्थमूलक और शोपक व्यवस्था पद्धति की उत्पत्ति नहीं हुई थी, अतएव आज के युग-धर्म रुप समाजवाद जैसी विशेप अर्थ-प्रणालि की व्यवस्था जैन-धर्म में नहीं पाई जाने पर भा समाजवाद का अर्थान्तर रूप से उत्लेख और व्यवहार जैन-धर्म मे अवश्य पाया जाता है, और वह पांचवे व्रत में अपरिग्रह वाद के नाम से स्थापित किया गया है । ___ अपरिग्रह वाद की रूप रेखा और इसके पीछे छिपी हुई भावना का तात्पर्य भी यही है कि मानव समाज में धन वाद का प्राधान्य नही हो जाय । जीवन का केन्द्र-चक्र केवल धन वाद के पीछे ही नही घूमने लग जाय । जीवन का मूल आधार धन ही नहीं हो जाय । धन वाद द्वारा मानव-समाज में नाना विध वुराइयाँ प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से प्रविष्ट नही हो, वल्कि मानव: समाज धन वाद की दृष्टि से एक ऐसे स्तर पर चलता रहे कि जिससे मानवजाति अपनी पारमाथिकता समझ सके और तप्णा के जाल से दूर ही रह सके । अतएव जन-धर्म मानव-जाति की कालिक सुव्यवस्था की ओर सुलक्ष्य देता हुआ महान् मानवता का प्रचार करता है। इस प्रकार प्रकारान्तर से धन वाद की विशेषता को धिक्कारता हुआ समाजवाद वनाम अपरिग्रह वाद पर खास जोर देता है । उपरोक्त कथन से प्रमाणित है कि जैन-धर्म परिपूर्ण अहिंसा की आधार शिलापर, नैतिकता द्वारा जीवन में अपरिग्रह वाद की वनाम समाजवाद की स्थापना करके अपने आपको विश्व-धर्म का अधिष्ठाता घोपित कर देता है । इस प्रकार मानव को आहार में निरामिप भोजी और व्यवहार मे समाज वादी एव विचार मे स्याद्वादी बनाकर यह धर्म ऐतिहासिक क्रानि करता हुआ विश्व धर्मों का केन्द्र स्थान अथवा धुरी-स्थान बन जाता हैं । यह है जैन धर्म की उदात्त और समज्ज्व ल देन, जो,कि अपने व्याप में अमाधारण और यादर्श है।