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________________ सूक्ति-सुवा ] [3.3 है । उसके दुखो को बॉटने के लिये कोई भी समर्थ नही होती है । ' अकेला ही घोर दुःखका अनुभव करता है । १३ मच्चरणान्माहओ लोगो, जराए परिवारिओ । उ०, १४, २३ टीका- यह संसार मृत्युसे पीडित है और बुढापे से सवृत्त आच्छादित है । प्रत्येक क्षण नाग और दुखु की धारा इस विश्व में प्रवाहित हो रही है । 1 १४ जाया य पुत्ता न हुवन्ति ताणं । उ०, १४, १२ टीका-कर्म-जनित महान् वेदना प्राप्त होने पर अथवा अघो-गति प्राप्त होने पर पुत्र भी आत्मा की रक्षा नही कर सकते है । ऐसा सोचकर आत्म-विकास करना चाहिये । सत् प्रवृत्तियो की ओर बढना चाहिये । 7 4 ~ 2 १५ मच्चू नरं नेह हु अन्त काले, न. तस्स माया चंपिया व भाया अंसहरा भवन्ति 1); उ., १३, २२ टीका — जव मृत्यु मनुष्य को अत समय मे घर दवाती है, तब अथवा भाई आदि कोई भी उसको उस समय उसके माता पिता बचाने में समर्थ नही हो सकते है । १६ माया नियो राहुसा भाया, नाल ते मम नागाए । } ', उ०, '६, ३ ;
SR No.010343
Book TitleJainagam Sukti Sudha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanrushi Maharaj, Ratanlal Sanghvi
PublisherKalyanrushi Maharaj Ratanlal Sanghvi
Publication Year1950
Total Pages537
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size13 MB
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