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वैराग्य-सूत्र
टीका-अपने कर्मों के अनुसार दुख भोगने के समय माता, पिता-पुत्र-वधु, भार्या अयवा पुत्र आदि कोई भी उन दुःखो से छुटकारा दिलाने मे, आपत्ति से रक्षा करने में समर्थ नही हो सकते है । इसके लिये तो सयम और स्व-पर की सेवा ही सर्वोत्तम औषधि है।
(१७) पालं ते तव ताणाए वा सरणाए वा, तम रितेसिं णाल ताणाए वा सरणाए वा।
आ०, २, ६५, उ, १ टीका-कर्मोदय से जनित घोर दु ख के समय हे आत्मन् । न तो "माता, पिता, वन्धु वर्ग ही तुम्हारी रक्षा कर सकते है अथवा शरण भूत हो सकते है, और न तू ही उनके घोर दुःखमै उनकी रक्षा कर सकता है। जिसका कर्म जो ही भोगेगा, अतएव ससार के सुख वैभव में और मोह में आसक्ति मत रख । कर्त्तव्य-मार्ग में अनासक्ति के साथ वढता चला जा।
(१८) एक्को सय पच्चणु होर दुक्खं ।
उ०, १३, २३ .. टीका-पाप कर्मो का उदय होने पर प्राप्त दुख को जीव अकेला ही भोगता है। उस दुःख को विभाजित करने में कोई भी समर्थ नहीं हो सकता है ।
(१९) एगत्त मयं अभिपत्थरज्जः ।
सू०, १०, १२ टीका-पडित पुरुष एकत्व-भावना की प्रार्थना करे। क्यो कि जन्म, जरा, मरण, रोग, भय, और शोक से परिपूर्ण इस जगत्