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सूक्ति-सुधा] .
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टीका--जो अपनी आत्मा को भोगो से और कपायो से हटाता है, उसे ही वीर महापुरुप कहते है । ऐसा वीर महापुरुष न तो रति यानी आसक्ति करता है और न भोगो की तरफ जरा भी आकर्षित होता है ! इसलिये ऐसे वीर-पुरुषो में "राग” का धीरे धीरे अभाव हो जाता है। इसी प्रकार किसी भी वस्तु के प्रति उनकी घृणा नही होती है, इस कारण से उनकी भावना तटस्थ हो जाती है, इसलिये उन मै "द्वेष" का भी धीरे धीरे अभाव हो जाता है, तदनुसार वीरआत्माएँ “वीतराग" बनती चली जाती है । इस तरह पूर्ण विकास की ओर प्रगति करती जाती है।
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जे अणन्न दंसी से अणण्णारामे, जे महाराणारामे से अणन्न दंसी।
__ आ०, २, १०२, उ, ६ टीका-जो आत्माऐ अनन्य दी है, यानी अहिंसा, सत्य, ब्रह्मचर्य और अनासक्ति आदि आदर्श सात्विक मार्ग का ही अवलम्बन लेने वाली है और जीवन में विपरीत बातो को स्थान नही देती है, वे निश्चय ही मोक्ष-गामी है। और जो मोक्ष गामी है, वे उच्च आदर्शों वाली ही हैं। तात्पर्य यह है कि जो अनन्य दी है वह अनन्य आराम वाला यानी मोक्ष वाला है, और जो अनन्य याराम वाला है, वह अनन्य दर्शी है ।
(४९) चत्तारि समणो वासगा, श्रद्दागसमाणे, पडागसमाणे, खाणुसमायो, खर कंट समाणे। ठाणा०, ४ था, ठा, उ, ३, २०