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सूक्ति-सुधा]
[१.१ टीका-अपनी आत्मा में स्थित कषाय-विपय, विकार, वासना से ही युद्ध करो, वाह्य-युद्ध में क्या रखा है ? बाह्य युद्ध तो और भी अधिक कपाय, वैर-विरोध और हिंसा एवं प्रतिहिंसा को ही बढ़ाने वाला होता है।
(९) श्रप्पाणं जइत्ता सुह मेहए ।
०, ९, ३५ टीका-अपनी आत्मा को सासारिक भोगो से हटाकर, राजस् और तामसिक दुर्गुणो पर विजय प्राप्त कर, सात्विकता प्राप्त करने पर ही सुखी बन सकते है ।
(०१) सब्बं अप्पे जिए जियं ।
उ०, ९, ३६ टीका-केवल एक आत्मा को जीत लेने पर ही यानी कपायो पर विजय प्राप्त कर लेने से ही सब कुछ जीत लिया जाता है, इसके बाद कुछ भी जीतना शेष नही रहता है ।
(११) अप्पा मित्त ममित्तं च, दुप्पट्ठिय सुपहियो।
उ०, २०, ३७ टीका-अपने आपको दु.खमय स्थान में पहुचाने वाला अथवा सुखमय स्थान में पहुंचानेवाला यह स्वय आत्मा ही है। यह आत्मा ही स्व का शत्रु भी है और मित्र भी है। सन्मार्ग गामी हो तो मित्र है और उन्मार्ग गामी हो तो शत्रु है ।