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। आत्मकाद-सूत्र
धर्म-धर्मी सम्बन्ध है। यह त्रिकाल, सर्वत्र और सर्वदा साथ २ रहने वाला तादात्म्य सम्बन्ध है। कभी भी इनमे जुदाई नहीं होती है । यदि गुण-गणी सम्बन्ध वाले पदार्थों में से गुणो के पृथक् होने का सिद्धान्त मान लिया जायगा तो अस्ति रूप द्रव्यो को नास्ति रूप होने का प्रसग आ जायगा।
"जे अज्झत्थं जाणइ. से बहिया जाणइ । जे वहिया जाणइ, से अज्झत्थं जाणइ ।
आ०, १, ५७, उ, ७ टाका--जो आत्मा अपना मल स्वरूप जानता है, अपने आपका अनन्त ज्ञान और अनन्त आनन्द का स्थायी अधिकारी मानता है। वह ससार के सभी पुद्गलो का स्वरूप भी जानता है और जापान पुदगलो को जानता है, वही अपने आतरिक आध्यात्मिक स्वरूप
मय यह है कि जो आत्मा को जानता है, वह वाह्य ससार को भी जानता है, और जो बाह्य ससार को जानता वह आत्मा को भी जानता है ।
एग जिणेज्ज अप्पाणं। एस से परमो जो॥
___ उ०, ९, ३४, टीका--जो अपनी आत्मा को विषय से, विकार से, १. कपाय से, जीत लेता है, यही विजय सर्वश्रेष्ठ विजय ह एसी यात्मा ही सभी वीरो मे सर्व श्रेष्ठ वीर है ।
वकार से, वासना से,
विजय है। और
अप्पाणमेव जुज्झाहि, किं ते जुज्झेण वज्झओ।