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सूक्ति-सुधा ].
__ . (३) जर्ण वियाणा से प्राया।
आ०, ५, १६६, उ, ५ टीका-जिसके द्वारा ज्ञान प्राप्त किया जाता है, जो ज्ञानप्राप्ति मे असाधारण रूप से साधक-तम कारण है, उसे ही आत्मा कहते है। ज्ञान का मूल स्थान, जानका मूल कारण, ज्ञान का मूल आधार आत्मा ही है । जहाँ २ आत्मा है, वहाँ २ ज्ञान है। और जहाँ २ ज्ञान है, वहाँ २ आत्मा है । ज्ञान और आत्मा का अग्नि एव उष्णता के समान आधार-आधेय सम्बन्ध है । अग-अगी सम्बन्ध है ।
(४) ___ अरूवी सत्ता अपयस्स पयं नस्थि ।
. आ०, ५, १७१-१७२, उ, ६ टीका--मोक्ष मे आत्मा का मूल स्वरूप अरूपी है। आत्मा वर्ण से, गन्ध से, रस से, और स्पर्श धर्म, से रहित है । अगब्द रूप है। उसके लिए कोई भी शब्द नही जोडा जा सकता है । व्यवहारदृष्टि से भले ही कोई शव्द जोडकर उसका ज्ञान कराया जाय, परंतु उसका वास्तविक स्वरूप पूर्ण निर्मलता प्राप्त होनेपर ही अनुभव किया जा सकता है । अमुक्ति-अवस्था में, ससार अवस्थामें, रागद्वेप से युक्त अवस्था मे, कषाय-अवस्था मे, उसका वास्तविक अनभव नही किया जा सकता है।
जे आषा से विनाया, जे विनाया से आया।
आ०, ५, १६६, उ, ५, टीका-जो आत्मा है, वही जाता है, जो ज्ञाता है, वही आत्मा है। ज्ञान और आत्मा का अभिन्न सम्बन्ध है, गुण-गुणी सम्बन्ध है,