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आत्मवाद सूत्र
(१) एगे आया।
ठाणा०, १ ला ठा० १ टीका-सम्पूर्ण लोकाकाश मे रहे हुए सभी जीव या सभी व्यात्माएँ गुणो की अपेक्षा से-अपने मूल स्वभाव और स्वरूप की अपेक्षासे, मूलभूत लक्षणोकी अपेक्षासे समान है । विशुद्ध दृष्टि से सभी खात्माओ मे परस्पर मे कोई भिन्नता नही है । इसलिए इस अपेक्षासे, इस नय की दृष्टि से सारे विश्व मे-सारे ब्रह्माड मे एक ही . आत्मा है। चेतन द्रव्य एक ही है। अनन्तानन्त, अपरिमित, सख्यातीत
आत्माओ के होने पर भी मूल गुण, धर्म, लक्षण, स्वभाव, स्वरूप, प्रकृति आदि समान है, एक जैसे ही है । अतएव यह कहने में कोई शास्त्रीय वाधा नही है कि अपेक्षा विशेप से आत्मा एक ही है, जो कि विश्व-व्यापी है और अनन्तगक्तियो का पुञ्ज है।
(२) नो इन्दियग्गेज्झ अमुत्त भावा, अमुत्त भावा वि य होइ निच्चो।
उ०, १४, १९ टीका-आत्मा अमूर्त है, रूप, रस, गन्ध और स्पर्श से रहित है, इसलिए आत्मा इन्द्रियो द्वारा अग्राह्य है, यानी जानने योग्य नही है। तथा अमूर्त यानी अरूपी होने से ही यह नित्य है, अक्षय है, . शाश्वत् है। पर्याये पलटने पर भी-विभिन्न गतियो मे विभिन्न शरीर धारण करने पर भी इसका एकान्त नाश नहीं होता है ।