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गन्दोनलक्षी अनुवाद
[ २९९ ७४-आत्मा ही मित्र भी है और अमित्र भी है। दुष्प्रतिन्ति और . नुप्रतिष्ठित करने वाली भी आत्मा ही है।
। ७५-~अप्रिय मित्र के लिए भी एकान्त मे जो कल्याण युक्त ही बोलता - है, वही आदर्श है। ७६---नहीं पूछा हुआ, नहीं बोले। ७७-सुव्रती अल्प ही बोले। ७८-अब्रह्मचर्य घोर पाप है। ७९-प्रभु महावीर अभय देने वाले है और अनन्त चक्षु वाले हैं।
( महा ज्ञानी है )। ८०-राग-द्वेप रहित आत्मा वाला भिक्षु अभयदान देता रहे। ८१-अभय दान देने वाले होओ। ८२-माया आदि कुकृत्यो से मूच्छित, अन्त मे वह कर्मों द्वारा तीर -
क्लेग पाता है। ८३-भिक्षु पाप का विवेक रखता हुआ निर्दीप वचन बोले । .. ८४.--अमनोज की समुत्पत्ति ही दुख है। ८५-जो अरति को नष्ट कर देता है, वही मेधावी है, वही क्षण भर -
मे मुक्त हो जाता है। ८६-प्रजाओ में अर्थात् स्त्रियो में आसक्त मत हा। ८७-( मुक्त जीव ) अरूपी सत्ता वाला होता है, शब्दातीत के लिय
शब्द नही होता है । अपद के लिये पद नहीं है । ८८-गुरु आदि के आश्रित रहता हुआ, गुप्ति धर्म का पालन करता
हुआ वैठे, अथवा रहे। १८९--सिद्ध प्रभु अलोक में जाने से रुके हुए है और लोक के अन्न भाग.. पर प्रतिष्ठित है। ९०-अबचल होता हुआ ( अनासक्न होता हुआ ) भिक्षु रसो मे गृद्धः
नही हो।