________________
शब्दानुलक्षी अनुवाद ]
[ ३४३
४०४ - तीन प्रकार के सद्गत जीव है, - ( १ ) सिद्ध सा ( २ ) देव सद्गत, (३) मनुष्य सद्गत |
सरलता से
४०५ - तीन प्रकार की आत्माएँ
(१) अदुष्ट, (२) अमूढ और (३) ४०६ - जिसकी तृष्णा नष्ट हो गई है, उसके
शिक्षा देने योग्य
अनाग्रही ।
लोभ नही होता
जिसका लोभ नष्ट हो गया है, उसके परिग्रह नही होता है - उसी को सत्य और निश्शंक समझो, जो कि जिन वीतराग देव रा कहा गया है ।
४०७
४०८ - सौ वर्ष की आयु वाले पुरुष की आयु भी तरुण अवस्था में जाया करती है, अत यहाँ पर अल्प कालीन वास ही समझो । ४०९-तप द्वारा पुराने पाप की निर्जरा होती है । ४१०--तप से आत्मा विशेष रीति से शुद्ध होती है ।
.
४११ - तप से निर्जरा पैदा होती है ।.
t
४१२ - सभी तपो में सर्व श्रेष्ठ तप ब्रह्मचर्य ही है । ४१३-तप रूप प्रधान गुण वाले की मति सरल होती है । ४१४ - मेघावी पुरुष तप करता है ।
४१५-तप का आचरण करो ।
४१६—त्रस काय का समारंभ जीवन पर्यंत के लिये छोड दो 1 ४१७ - त्रस प्राणियो की हिंसा मत करो ।
- ४१८ - अभय दान देने वाले ससार से पार उतर जाते है ।
४१९——जैसे वघन से गिरा हुआ ताड़ फल टूट जाता है, वैसे ही हुष्य के क्षय होते ही प्रणी - ( पर लोक को चला जाता है ।)
L
४२० - निश्चयही महान् ससार रूप समुद्र तो तैर गये हो, फिर किनारे तक पहुचे हुए होकर ठहरे हुये हो ।
४२१- -गंभीर लज्जा शील होकर विचरो ।
४२२ - उपधि तीन प्रकार की है
सचित्त, अचित्त और मिश्र