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[व्याख्या कोप
पुण्य कहलाते है । सक्षेप मे पुण्य के ९ भेद किये गये है और उनका फल ४२ प्रकार से भोगा जाता है। १९-पुद्गल
जो दृव्य अजीव याने जा रूप होता हुआ रूप वाला, रस वाला, गध। वाला और वर्ण वाला हो, तथा जो मिलने विचरने, सटने गलने वाला हो, ऐसा पदार्थ-पुद्गल कहलाता है ।
हमे ने यो द्वारा जो कुछ भी दिखलाई पड़ रहा है, यह सब पुद्गल का ही रूपान्तर है । सूर्य, चन्द, तारा, धूप, प्रकाश, छाया, चादनी, शब्द, जल, पृथ्वी, हवा, वनस्पति, पहाड, जीदो के शरीर, लोहा, साना, चादी, मिट्टी, सभी पुद्गल के हा विभिन्न रूप है। सारा स्थूल ब्रह्माड पुद्गलो का ही बना हुआ है। उपरोक्त पदार्थों में विभिन्न जीव-समूह इन्ही को शरीर बना कर रहते है । दृश्यमान सारा मसार पुद्गलो का ही बना हुआ है । पुद्गल तत्त्व को मुग्य रूप से चार भागो मे वाटा है । १ स्कध, २ देश, ३ प्रदेश, और ४ परमाणु ।
विश्व-व्यापी पुद्गलो का सपूर्ण समूह ''स्फ" कहलाता है।
स्कघ के हिस्से "देश" कहलाते है । परमाणु का स्वरूप पहले लिखा जा चुका है। देश अथवा स्कघ मे मिला हुआ “परमाणु" जितना ही अश "प्रदेश" के नाम से बोला जाता है । स्वतत्र अवस्था मे जो परमाणु है, वही सम्मिलित अवस्था मे “प्रदेश" के नाम से पुकारा जाता है। २०--पूर्वधर
से जानी महात्मा और सत ऋपि, जो कि महान् ज्ञान के धारक हो। तीर्थकरो और अरिहतो द्वारा फरमाये हुए विशाल और विस्तृत ज्ञान के पारक "पूर्वधर" कहलाते है।
१ बंध - योग और कषाय के कारण से आत्मा के प्रदेशा के साथ कर्म-परमाणओ का दूध पानी की तरह मिल जाना ही "बंध" कहलाता है। बध के चार