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सूक्ति-मुवा ]
( १४ ) सव्वत्र पमत्तस्स भयं ।
आ० ३, १२४, उ, ४
टीका - जो प्रमादी है, जो विषय में, विकार में, वासना में, तृष्णा, आदि में फसा हुआ है, उसको हर तरह से भय, चिन्ता और अशाति घेरे रहती है । प्रमादी को सब तरह से और सब ओर से भय ही बना रहता है ।
( १५ )
मंदा वितीयंति, मच्छा विट्ठा व केणे ।
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सू०, ३, १३, उ, १
• टीका - भोगों में मूच्छिंत जीव एवं मोह में डूबे हुए जीव इस तरह दुख पाते है, जैसे कि जाल में फसी हुई मछली दुख पाती है ! भोग ही रोग का और दुःख का घर है ।