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[ व्याख्या कोष
भाव, ३ क्षायोपशमिक-भाव, ४ औदयिक-भाव और ५ पारिणामिक-भाव ।
१ कर्मो के शान्त रहने की हालत में आत्मा में पैदा होने वाले विचार "औपशमिक-भाव" है। __ २ कर्मो के क्षय हो जाने पर अथवा निर्जरा होने पर आत्मा में पैदा होने वाले विगर "क्षायिक-भाव" है ।
३ कुछ कर्मों के तो उपशम होने पर और कुछ के क्षय होने पर, इस प्रकार मिश्र स्थिति होने पर आत्मा मे पैदा होने वाले विचार "क्षायोपशमिकभाव" है।
४ कर्मों के उदय होने पर, कर्मो द्वारा अपना फल दिये जाने के समय मे आत्मा मे पैदा होन वाले विचार "औदयिक-भाव" हैं।
५ आत्मा की स्वाभाविक विचारधारा ही पारिणामिक"-भाव है। ३ भावाश्रव
आत्मा में उत्पन्न होने वाले अच्छे अथवा बुरे विचार ही, शुभ-अशुभ अध्यवसाय ही, इष्ट-अनिष्ट भावना ही "भावाश्रव है।
सात्विक, पवित्र और निर्दोप भावना से तो शुभ-भावाश्रव होता है और कषाय से, नो कपाय से, एव अनिष्ट विचार-धारा से अशुभ-भावाश्रव होता है।
भावाश्रव के बल पर ही कर्म-परमाणु आत्मा की ओर आकर्षित होते है और यही द्रव्याश्रव कहलाता है । शुभ दृव्याश्रव से सुख-सामग्री और वैभवविपुलता की प्राप्ति होती है, जव कि अशुभ दृष्याश्रव से दु.ख-दरिदता एवं वियोग-विपत्ति आदि की प्राप्ति हाती है । ४ भावना
आत्मा के सुन्दर, सेवामय, अनासक्ति वाले और पवित्र विचार ही भावना कहलाते है । शुभ-ध्यान, शुभ-लश्या, शुभ-अध्यवमाय, ममता-रद्वित परिणाम, अविचल ईश्वर-भक्ति आदि "भावना" के हा अन्तर्गत सो जाते है।
स्थल रूप से भावना के ४ भेद और १२ भद किये गये है, वे इस प्रकार है -१ मंत्री-भावना, २ प्रमोद-भावना, ३ करुणा-भावना और ४ माध्यस्थ-भावना ।