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( १६ ) जे माण दसी से माया दंसी ।
आ०, ३, १२६, उ, ४
टीका–जो मान वाला है, उसके हृदय में कपट है ही । जिसके हृदय में मान होता है, उसके हृदय में कपट भी होता ही है । मान और माया का सहचर सम्बन्ध है ।
( १७ ) माणो विज्ञाय नासणो । - द०, ८, ३८
[ कषाय-सूत्र
टीका- - मान विनय का नाश करता है, नम्रता को दूर भगाता है । मान से आत्मा मे गुणों का विकास होना रुक जाता है । ( १८ )
आत्तणं न समुक्कस | ८०, ८, ३०
टीका - अपने आपको बडा नही समझे, यानी अहकार का सेवन नही करे । अहकार सेवन से आत्माकी उन्नति रुकती है, ज्ञान- दर्शन और चारित्र मे बाधा पहुँचती है, एव मरणात मे दुर्गति की प्राप्ति होती है ।
( १९ )
न बाहिर परिभवे ।
द०, ८, ३०
टीका – कभी किसी को तिरस्कार नहीं करे । तिरस्कार करने से पर के मर्म की हिसा होती है, तथा अपनी आत्मा मे मान- कषाय का पोषण होता है |
('२० ) सुश्रलाभे न मज्जिज्जा !
द० ८, ३०