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[वैराग्य-सूत्र
टीका--तुम्हारा यह शरीर गिर रहा है, प्रति क्षण निर्बल हो रहा है, क्रमश प्रत्येक क्षण नाश को प्राप्त हो रहा है, अचानक रूप से मृत्यु आ जाने वाली है, इसलिये हे गौतम क्षण भर का भी प्रमाद मत कर!
(४) दुमपत्तए पंडुयए जहा, एवं मणुयाण जीवियं ।
उ०, १०,१ टीका--जैसे वृक्ष का पीला और पका हुआ पत्ता न मालूम किस क्षण मे गिर जाता है अथवा गिरने वाला होता है, वैसे ही यह __ मनुष्य शरीर न मालूम किस क्षण मे नष्ट हो जाने वाला है ।
(५) कुसग्गे जह ओस बिंदुए, . एवं मणुयाण जीवियं ।'
उ०, १०, २ . टीका-जैसे कुशा-घास पर अवस्थित ओस-विन्दु थोड़े समय तक की स्थिति वाला होता है, और हवा का झोका लगते ही गिर पड़ता है वैसे ही मनुष्य-जीवन का भी कोई निश्चित पता नही है। न मालूम कब यह खत्म हो जाने वाला है ।
कुसग्गे पणुन्नं निवइय वाएरियं. . ., ‘एवं बालस्स जीवियं ।
, आ०, ५, १४३ उ, १ . टीका-जैसे कुशा- घास पर अवस्थित - जल विन्दु हवा का झोका लगते ही गिर पडता है, और समाप्त हो जाता है, ऐसे ही