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.. लोभ-सूत्र -
(१) लोभो सव्व विणासपो।
द०, ८,३८ टीका--लोभ सभी आत्मिक-गुणो का नाश कर देता है। लोभ पाप का बाप है । लोभ वशात् मनुष्य न जाने क्या क्या पपप कर बैठता है ?
(२) इच्छा हु अागास समा अणन्तिया।
उ०, ९, ४८ टीका-विश्व भर की सपत्ति और वैभव प्राप्त हो जाने पर भी लोभी चित्त को शांति नही हो सकती है, क्योंकि इच्छा-तृष्णा तो आकाश के समान अनन्त है, इनका कोई पार नही है, ऐसा सोच कर सतोष को ग्रहण करना चाहिये।
(३) दुप्पूरए इमे आया।
____उ०, ८, १६
टीका-संसार का संपूर्ण वैभव भी प्राप्त हो जाय, पुद्गलों की अपरिमित रूप से सुखमय प्राप्ति हो जाय, तो भी तृष्णा-ग्रस्त आत्मा सतुष्ट नही हो सकती है। तृष्णा के आगे तृप्ति अत्यत कठिन है । इसलिये यह आत्मा दुष्पूर है।