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[लोभ-सूत्र
(४) जहा लाहो तहा' लोहो, लाहा लोहो पर्वड्ढई ।
उ०, ८, १७ टीका-ज्यो ज्यो लाभ होता जाता है, त्यों त्यो लोभ बढता जाता है, इस प्रकार तृष्णा के रहते हुए लाभ से लोभ बढता __ ही रहता है।
मोहाययणं खु तहा।
उ० ३२, ६ टीका-तृष्णा ही मोह का स्थान है, मोह का नाश करने के लिये सर्व-प्रथम तृष्णा का नाश किया जाना चाहिये। तृष्णा रूपी लता के जन्म-मरण रूपी कटु फल है।
मोहं च तण्हाययणं
उ०, ३२, ६ । टीका--मोह तृष्णा का घर है, तृष्णा के नाश के लिये मोह की वृत्तियो पर नियत्रण रखना परम आवश्यक है।
: (७) . भव तरहा लया वुत्ता, भीमा भीम फलोदया।
उ०, २३, ४८ टीको-ससार मे तृष्णा यानी अतृप्ति एक प्रकार की विष लता के समान कही गई है, जो कि वडी ही भयंकर है, और जो भयकर फलो को, यानी नानाविध आपत्तियों को और विपत्तियों को