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________________ सूक्ति-सुधा ] [ २३३ देने वाली है । तृष्णा कभी भी शात होने वाली नही है और यह बाकाश के समान अनन्त विस्तृत है । ( 2 ) - करेइ लोहं वेरं वढेर अप्पणी 1 आ०, २, ९५, उ, ५ टीका - जो लोभ करता है, जो तृष्णा-वासना मे फसा रहता है, उसके लिये चारो तरफ से वैर भावना ही बढ़ती है । उसको प्रति क्षण क्लेश ही क्लेश अंति रहते हैं । लोभ मे वास्तविक शांति का सर्वथा अभाव है । ↑ C ( ९ ) इच्छा कामं च लोभ च, सज्जओ परिवजए । ~ उ०, ३५, ३ 7 टीका-सयती आत्मा और तत्त्व दर्शी आत्मा अपने मे रही हुई इच्छा को, मूर्च्छा को मूढता को, पाचो इन्द्रियो के काम-गुणो को और लोभ को छोड दे } (-१) अतुट्ठि दोसेरा दुही परस्स, लोभाविले श्रययई श्रदत्तं । 4. t उ०, ३२, ६८ + टीका -- जिस प्राणी का चित्त असतोष से भरा हुआ होता है, वह सदैव दुखी रहता है । ऐसा प्राणी दूसरे के सुख को देख कर अंदर ही अदर मन में जला करता है, और लोभाव होकर दूसरे की वस्तु को अदत्ता-रूप से अर्थात् चोरी रूप से लेने को तैयार हो जाता है । (१) इच्छा लोभ न सेविज्जा । ०८, ३९, ८
SR No.010343
Book TitleJainagam Sukti Sudha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanrushi Maharaj, Ratanlal Sanghvi
PublisherKalyanrushi Maharaj Ratanlal Sanghvi
Publication Year1950
Total Pages537
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size13 MB
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