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सूक्ति-सुधा ]
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देने वाली है । तृष्णा कभी भी शात होने वाली नही है और यह बाकाश के समान अनन्त विस्तृत है ।
( 2 ) - करेइ लोहं वेरं वढेर अप्पणी 1
आ०, २, ९५, उ, ५
टीका - जो लोभ करता है, जो तृष्णा-वासना मे फसा रहता है, उसके लिये चारो तरफ से वैर भावना ही बढ़ती है । उसको प्रति क्षण क्लेश ही क्लेश अंति रहते हैं । लोभ मे वास्तविक शांति का सर्वथा अभाव है ।
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( ९ ) इच्छा कामं च लोभ च, सज्जओ परिवजए ।
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उ०, ३५, ३
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टीका-सयती आत्मा और तत्त्व दर्शी आत्मा अपने मे रही हुई इच्छा को, मूर्च्छा को मूढता को, पाचो इन्द्रियो के काम-गुणो को और लोभ को छोड दे
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(-१)
अतुट्ठि दोसेरा दुही परस्स, लोभाविले श्रययई श्रदत्तं । 4.
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उ०, ३२, ६८
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टीका -- जिस प्राणी का चित्त असतोष से भरा हुआ होता है, वह सदैव दुखी रहता है । ऐसा प्राणी दूसरे के सुख को देख कर अंदर ही अदर मन में जला करता है, और लोभाव होकर दूसरे की वस्तु को अदत्ता-रूप से अर्थात् चोरी रूप से लेने को तैयार हो जाता है ।
(१) इच्छा लोभ न सेविज्जा । ०८, ३९, ८