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[ लोभ-सूत्र.
टीका --सासारिक पुद्गलो की अथवा सांसारिक सुखों की इच्छा कभी भी नही करनी चाहिये । लोभ-तृष्णा का भी परित्याग कर देना चाहिये । लोभ ही अनर्थों की जड़ है । अतएव लोभ का नाश करना, तृष्णा - जाल को दूर फेक देना, जीवन विकास के लिये आवश्यक सीढी है ।
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( १२ ) संतोसिणो नो पकरेंति पाव । सू०, १२, १५
टीका -- सतोषी पुरुष पाप कर्म नही करते है । संतोष से चित्त वृत्तिया स्थिर होती है, और इससे सेवा तथा कर्त्तव्य के मार्ग की तरफ अभिरुचि बढती है । संवर और निर्जरा का आचरण जीवन मे बढता है | नवीन कर्म रुकते है, और प्राचीन कर्म क्षय होते हैं, इससे आत्मा निर्मल और सबल होती है, यही मोक्ष का मार्ग है ।
( १३ )
आयं ण कुज्जा इह जीवियट्ठी ।
सू०, १०, १०,
अर्थी पुरुष, ससार का अंत करने वाले रहने की इच्छासे द्रव्य-पदार्थों का नही रक्खे । धनादि पदार्थों और
टीका -- कल्याण के पुरुष, चिरकाल तक जीवित संचय नही करे । तृष्णा-भाव मकानो का संग्रह नहीं करे ।
( १४ )
विणी तिust विहरे ।
६०, ८, ६०
टीका -- तृष्णा को हटा कर, लालसा से रहित होकर, जीवन को परम संतोष के साथ व्यतीत करना चाहिये ।
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