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अनित्यवाद-सूत्र
कर्तव्य-मार्ग से अर्थात् मानवता के मार्ग से ऐसा पुरुष बहुत दूर है।
(११) जे इन्दियाण विसया मणुन्ना, न तेसु भावं निसिरे कयाइ ।
उ०, ३२, २१ टीका--इन्द्रियो के जो विषय, मनोज्ञ, सुन्दर और आकर्षक दिखाई देते है, उनमें चित्त को, आकाक्षा को और आसक्ति को कभी भी प्रस्थापित नही करना चाहिये ।
(१२) नाणा रुई च छन्दं च, परिवज्जेज्ज संजओ।
उ०, १८, ३. टीका-नाना रुचि यानी मन की अस्थिरता को, अव्यवस्था को, अनवस्था को और छन्द यानी आसक्ति एव मूर्छा आदि को साधु 'पुरुष छोड़ दे। मन की अस्थिरता और चित्त की आसक्ति आत्मा की शक्तियों को छिन्न-भिन्न करने वाली है। अतएव आत्मार्थी इनका परित्याग कर दे।
अमणुन्न समुप्पाय दुक्खमेव ।
सू०, १, १०, उ, ३ टीका--अशुभ अनुष्ठान करने से ही-मन, वचन और काया की अशुभ प्रवृत्तियो से ही दुख की उत्पत्ति होती है।
(१४) सावज्ज जोग परिवज्जयतो, चरज्ज भिवाव सुसमाहि इंदिए ।
उ०, २१, १३