________________
सूक्ति-सुधा ]
[ १९१
टीका - सावद्य योग का यानी पापकारी प्रवृत्तियो का परित्याग करते हुए समाधिस्थ होकर और चित्त वृत्तियों को रोक कर एवं इन्द्रियो का दमन करते हुए भिक्षु विचरे । आत्मार्थी अपना कालक्षेप करे |
( १५ ) सरीर माहु नावति, जीवो goes नाविओ ।
उ०, २३, ७३
टीका - यह मानव-शरीर संसार रूप समुद्र को तैरने के लिये नाव के समान है और भव्य आत्मा तैरने वाला नाविक है 1.
( १६ ) न सव्व सव्वत्थ अभिरोयपज्जा । उ०, २१, १५
-
टीका — प्रत्येक स्थान पर और प्रत्येक वस्तु के प्रति यानी सर्वत्र और सब वस्तुओं के प्रति मन को नही ललचावें । मन को बश में रक्खें 1
( १७ )
सद्देसु जो गिद्धि मुवेर तिव्वं अकालियं पावर से विणासं ।
उ०, ३२, ३७
टीका - जो शब्दो में- यानी रागात्मक गीत गायनों में तीव्र वृद्धि भाव रखता है, इनमें मूर्च्छा-भावना और मूढ़ भावना रखता है, उसकी अकाल में ही मृत्यु होती है । वह अकाल में ही घोर दुःख का भागी होता है ।
( १८ )
रुवे जो गिद्ध मुवेइ तिब्वं अकालिय पावर से विणास ।
उ० ३२, २४