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और दक्षिण भारत के अधिकांश भाग में वैदिक यज्ञ-याग करना, वेद-मंत्री का उच्चारण करके जीवित विभिन्न पशुओ को ही अग्नि मे होम देना, वलिदान किये हुए पशुओ के मास को पका कर खाना और इसी रीति' से पूर्वजो का यज्ञ के मास द्वारा तर्पण करना ही धर्म का रूप समझा जाता था। ईश्वर के अस्तित्व को एक विशिष्ट शक्ति के रूप में कल्पना करके उसे ही सारे विश्व का नियामक, की, हत्ती और स्रष्टा मानना, वर्ण-व्यवस्था का निर्माण करके शूद्रो को पशुओ से भी गया वीता समझना, इस प्रकार की धर्म-विकृति महावीर-युग में हो चली थी।
समाज पर और राज्य पर ब्राह्मण-सस्कृति का प्राधान्य हो चला था, वेदानुयायी पुरोहित वर्ग राजा-वर्ग पर अपना वर्चस्व स्थापित कर चुका था, और इस प्रकार समाज में ब्राह्मण तथा क्षत्रिय ही सर्वस्व थे। धर्म-मार्ग "वैदिकी हिंसा हिसा न भवति" के आधार पर कलुषित तथा उन्मार्ग गामी हो चला था। ऐसी विषम और विपरीत परिस्थितियो मे दीर्घ तपस्वी महावीर स्वामी ने इस तपोपूत ऋपि-भूमि भारत पर आज से २५०६ वर्ष पूर्व जन-धर्म को मूर्त रूप प्रदान किया। चूकि वर्तमान जैन-दर्शन की धारा भगवान महावीर-काल से ही प्रवाहित हुई है, अतएव इस निवन्ध की परिधि भी इसी काल से सबधित समझी जानी. चाहिये, न कि प्राक् ऐतिहासिक काल से। ____ महावीर स्वामी ने इस सारी परिस्थति पर गभीर विचार किया और उन्हे यह तथाकथित धार्मिकता विपरीत, यात्म-घातक, पाप-पंक से पालुपित और मिथ्या-प्रतीत हुई। उन्होने अपने आसाधारण व्यक्तित्व के बल पर मानव जाति के आचार-मार्ग में और विचार क्षेत्र में आमूल चूल. ऐतिहासिक प्राति करने के लिये अपना सारा जीवन देने का और राजकीया तथा गृहस्थ सवधा भोगोपभोग जनित मुखो का बलिदान देने का दृढ निश्चय किया।
इनके मार्ग में भयकर और महती कठिनाइयाँ थी, क्योकि इन द्वारा प्रस्तुत की जाने वाली क्राति का विरोध करने के लिये भारत का तत्कालीन