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सूक्ति-सुवा ]
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है और अक्लेशकर भी है, इसलिये ज्ञानी को स्याद्वाद मय भाषा ही बोलना चाहिये ।'
( ४२ )
कहं धीरो अहे श्रहिं, उम्मत्तो व महिं चरे ।
उ०, १८, ५२
टीका—घर्य शाली और विचार शील महापुरुष घर गृहस्थी का,परिग्रह का, सुख का और वैभव का त्याग क्या बिना कारण ही और क्या बिना विचारे ही करते हैं ? पृथ्वी पर उन्मत्त की तरह क्या बिना कारण ही घूमते रहते है ? नही, उनके विचारों के पीछे ठोस आत्म बल, नैतिक पृष्ठ भूमि और आध्यात्मिक विमल' विचारो का आधार होता है । इसलिए साधारण पुरुषों को उनका अनुकरण निश्शक होकर करना चाहिए ।'
( ४३ )
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विगय संगामो भवाओ परिमुच्चप ।
९, २२
टीका—जिस आत्माने कर्मों और विकारो के साथ सग्राम कर, उन पर विजय प्राप्त कर ली है, यानी अब संसार में जिस आत्मा की किसी के भी साथ कषाय-रूप सग्राम नहीं रहा है, जो आत्मा विगत कषाये हो गई है, "वह ससारं बघन से शीघ्र ही छूट जाती है ।
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(४४) आयगुत्ते संयादंते, छिन्नसोप अणासवे ।
० सू०, ११, -२४,- -