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सूक्ति-सुधा ]
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मिच्छादिट्ठी अणारिया, संसारं अणुपरियति ।
सू०, १,३२, उ, २ टीका-जो मिथ्या दृष्टि है, जो भोग-उपभोग को ही सर्वस्त्र समझने वाले है, इन्द्रिय-सुख को ही मोक्ष का सुख समझने वाले हैं, वे अनार्य है। और इससे ससार मे परिभ्रमण करना ही उनके जीवन का प्रमुख अग बन जाता है। यानी ऐसी आत्माऐ ससार मे ही परिभ्रमणकरती रहती है।
(११) न सरणं वाला पंडिय माणिणो।
सू०, १, १ उ, ४ , टीका-जो पडित या आत्म ज्ञानी नहीं होते हुए भी अपने आप को पडित मानते है आर इन्द्रिय भोगो में फसे हुए हैं, ऐसी बाल आत्माओ के लिये ससार मे कही भी शरण नहीं है, उनके लिये कही. भी वास्तविक सुख नहीं है । य आत्माऐ तो फुट बाल (Foot Bar) के समान इधर की उधर जन्म-मरण करती रहती है।
बाल जणो पगा।
मू०, २१, उ, २ टीका-जो मूर्ख है, जो वासना और विषय मे मूच्छित है, वहीं पापी है । मूर्छा ही पाप है।
वाले पाहिं मिज्जती।
स०, २, २१, उ,२ टीका-विवेक हीन आत्माऐ पापो से लिप्त होती हैं। विदेक हीन का सत्कार्य भी असत्य कार्य ही है। ऐसी आत्माएं पौद्गलिक सुख को ही वास्तविक सुख समझती है।
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