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[ बाल- जन-सूत्र
मौका ही कैसे मिल सकता है ? आश्रव रुके तो संवर की और निर्जरा की सम्भावना हो ।
सू०, १०, १८
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टीका - मूढ आदमी तृष्णा और वासना के वश होकर धन कमाने में इतना अंधा, आसक्त' और अविवेकी हो जाता है कि मानो वह कभी मरेगा ही नही । मानो कभी उसको वुढापा आवेगा. ही नही ।
( ७ )
श्रट्टे मढ़े अजरामरेच्या ।
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(८)
अन्नं जगणं खिसति बालपन्ते ।
सू०, १३, १४
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टीका -- मूर्ख पुरुष, मदमति पुरुष, अन्य जनों की निंदा करता ही रहता है । अज्ञानी को दूसरे की निंदा करने में ही आनन्द आता है । बाल बुद्धि पुरुष दूसरे का तिस्कार ही करता है ।
( ९ ) जं मग्गद्दा बाहिरियं विसोहिं, न तं सुट्ठे कुलता वयन्ति । उ०, १२, ३८
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टीका--जो केवल वाह्य - विशुद्धि को ही स्नान-शृंगार-शरीरसफाई को ही सब कुछ मानते है और इसी में कर्त्तव्य की इतिश्री समझते है, उन्हे ज्ञान शील पुरुष सुयोग्य, सुदृढ और धर्मानुगामी नही कहते है । आन्तरिक शुद्धि अर्थात् कषाय त्याग के अभाव में बाह्य शुद्धि निरर्थक है । यह तो मृत पुरुष को शृंगारित करने के समान हैं ।
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