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[वाल-जन-सूत्र
(१४) धित्तं पसयो य नाइयो, तं वाले सरणं ति मन्नइ ।
मू०, २, १६, उ, ३ टीका-मूर्ख प्राणी, विपयासक्त प्राणी ही धन को, पशु को, जुटाव को, जाति-वन्धुओ को अपना शरण देने वाले मानता है। उन्हें भावार-भूत मानता है । "ये मुझे दु.ख से बचा सकेगे" ऐसी मान्यता रखता है।
(१५) हिंडंति भयाउला सढा, जाइ जरा मरणहिं अभिदुता।
सू०, २, १८, उ, ३ टीका-जन्म, जरा और मरण से पीडित प्राणी, भयाकुल शठ ___माणी, भोगी प्राणी वार वार ससारचक्र मे भ्रमण करते है । भोगों
ने इस लोक और परलोक में नाना दुःख उठाते हैं, नाना कष्ट
मंदा मोहेण पाउडा।
सू०, ३, ११ उ, १ टीका--मूर्ख प्राणी, वासना-ग्रसित प्राणी, विवेकहीन प्राणी, मोह से ढके हुए रहते है । उन्हे हित का और यहित का भान नहीं रहता है। ऐसे जीव भोग-सुख को ही आत्म-सुख समझत है। स्वच्छंदता को ही स्वतंत्रता समझते है ।
वदामोति य मन्नता, अंत ए ते समाहिए ।
सू., ११, २५