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________________ शब्दानुलक्षी अनुवाद ] [३०७ १३९-आसातना में-आज्ञा भग में मोक्ष नही है । १४०-जिन-शासन को सुन कर (जन-धर्म का ज्ञान प्राप्त कर) क्रोध मत करो। १४१-हे धीरज वाले आदमी | तू विपयो सवधी आशा को और अभिलाषा को छोड़ दे। १४२-(आत्मा) अपने किये हुए कर्मो के अनुसार ही (परलोक को) जाता है। १४३- यहाँ से विध्वस हुई आत्मा के लिये पुन ज्ञान प्राप्त होना - दुर्लभ है। १४४-सयती, इच्छा को, काम-वासना को, और लोभ को छोड़ दे । १४५-- ( विषय की) इच्छाओ को और लोभ को मत सेवो, इनकी . सेवना मत करो। --- - - - - - . . १४६-निश्चय करके इच्छाएं आकाश के समान अनन्त है। -- १४७-निन्दा ही पाप है। - २४८-"इंगित और आकार में ही" याने सकेंत-ईशारे में ही समझ . .. लेने वाला विनीत कहा जाता है । १४९—जो स्त्रियो को नही सेवते है, वे महापुरुष निश्चय ही आदि मुक्त __ याने मोक्ष प्राप्त किये हुए ही है। । १५०-स्नियो के साथ सहवास करने से अनगरि नाश को प्राप्त होते है। १५१-स्त्रियो के निवास के मध्य मे ब्रह्मचारी का निवास योग्य नही है। . १५२–जो वाल-मूर्ख स्त्री के वश में गये हुए है, वे जिन-शासन से परा ङ्मुख है । ( याने दूर हैं ) . । २५३-ये स्त्रियां बहुत माया वाली है और मोह से ढंकी हुई है ।
SR No.010343
Book TitleJainagam Sukti Sudha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanrushi Maharaj, Ratanlal Sanghvi
PublisherKalyanrushi Maharaj Ratanlal Sanghvi
Publication Year1950
Total Pages537
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size13 MB
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