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शब्दानुलक्षी अनुवाद
२३४---जैसे कुशाग्र भाग पर, (घास पर) ओस की विदु अस्थिर होती
है; वैसे ही यह मनुष्य-जीवन मा अस्थिर है । २३५-कुशाग्र पर (ठहरा हुआ) जल बिंदु हवा द्वारा प्रेरणा पाकर
गिर पडता है, वैसे ही वाल जन का, भोगी का जीवन भी नष्ट
हो जाता है । २३६-कुशील को बढाने वाले स्थान को दूर से ही छोड़ दो।। - २३७--मंद बुद्धिवाला क्रूर कर्म करता हुआ और उसके दु.ख से विवेक
शून्य होता हुआ अत मे विपरीत स्थिति को ( राग द्वेप की
स्थिति को ) प्रप्त होता है। २३८-जैसे काठ का कीडा अपना घर काठ मै वनाही लेता है, वैसे ही
आत्मार्थी मिथ्यात्व की खोज करता हुआ सत्य को प्राप्त कर ले। २३९-क्रोध प्रीति का नाश करता है। २४०-क्रोध को असत्य कर दो, याने क्रोध मत करो। २४१-क्रोध की और मान की इच्छा मत करो। २४२-शरीर समाप्ति के अन्तिम क्षण तक भी गुणो की आकाक्षा करते रहो। . .
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२४३-हे पडित ! हे आत्मज्ञ ! क्षण को अर्थात् समय के मूल्य को
पहिचानो! २४४-काम-भोग क्षण-मात्र के लिये ही सुख रूप है, जब कि इनका
परिणाम बहुत काल के लिये दुखदाता है । ये अल्प सुख देने
वाले और महान् दुख देने वाले हैं । २४५-(उच्च आत्मा) क्षमा द्वारा परिपहो को जीतता है। २४६--क्षमापना से प्रसन्नता के भाव पैदा होते है । -.... २४७-मेरे अपराध को क्षमा करो, और ऐसा बोले कि "पुन ऐसा
नही होगा।" , . २४८–अमोहदर्शी याने तत्त्वदर्शी अपने पूर्व कर्मों का क्षय कर डालते है।