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[ मूल-सूक्तियां २३४--कुसग्गे जह ओस विंदुए, एवं मणुयाण जीविय ।
___.( वैराग्य ५) “२३५---कुसग्गे पणुन्न निवइय वाएरियं, एव बालस्स जीविय ।
( वैराग्य ६) २३६---कुसील वड्ढणं ठाण, दूरओ परिवज्जए। ( शील ८) २३७-कूराइ कम्माइ वाले फ्कुव्वमाणे, तेण दुक्खेण समूढे विप्परियास मुवेइ।
( बाल २३ )
२३८--कोलावास समासज्ज वितह पाउरे सए। ( प्रकी ११)
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२३९--कोहो पीइ पणासेई। "२४०--कोह असच्च कुव्वेज्जा। .
२४१-कोह माण ण पत्थए। - -२४२--कखे गुणे जाव सरीर भेउ । ।
- ( क्रोध १)
(क्रोध ३) ( कपाय २६ ) ( उपदेश ६ )
२४३-खण जाणाहि पडिए । ... ( उपदेश ४५ ) २४४--खण मित्त सुक्खा बहु काल दुक्खा, पगाम दुक्खा अणिगाम सुक्खा ।'
( उपदेश ५२ ) २४५-खन्ती एण परिसहे जिणइ ।
(क्षमा २ ) २४६---खमा वणयाए पल्हायण भाव जणयइ ।- - ( क्षमा ३ ) २४७-खमेह अवराह मे; वइज्जन पुणु त्ति अ । ( सात्विक ३ )
२४८-खवति अप्पाण ममोहदसिणो।
( महापुरुष १८ )