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[ अहिंसा-सूत्र
करे । और इस प्रकार अपनी आत्माको सतुष्ट करे, अपनी आत्माको प्रसन्न करे।
(१२) न हणे पाणिणो पाण।
उ०, ६, ७ टीका-किसी भी प्राणी के प्राणो का, इन्द्रिय आदि का नाश नहीं करना चाहिए । क्योकि हिंसा, पर-पीडन, सदैव दु.ख को ही बढाने वाला है।
(१३) विरए पहायो।
आ०, ३, ७, उ, २ टीका-जीव-हिंसा से दूर रहो, पर-पीड़ा के पाप से बचते रहो, यही इस ससार में सबसे बडा पाप है।
नाइ वाइज कंचण।
मा०, २, ८६, उ, ४ टीका-सत्यार्थी कभी भी किसी की हिंसा नही करे,-कभी भी 'किसी को चोट नहीं पहुंचावे । स्व-पर-कल्याण-भावना के साथ जीवन व्यवहार चलावे ।
मुणी । महन्भयं नाइवाइज कंचणं ।
आ०, ६, १७५, उ, १ टीका-हे मुनि | हिंसा का परिणाम महा भयङ्कर होता है, “इसलिये किसी की भी हिंसा मत करो। किसी को भी पीड़ा मत पहुँ