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सूक्ति-सुधा]
[१२९ (३४) विद्धंसण धम्म मव तं इति, विज कोजगार मावसे ।
सू०, २, १०, उ, २ टीका–ससार का सुख और ससार के पदार्थ नाशवान् है, ये अस्थायो है, ये अनित्य है ये छोड़कर चले जाने वाले है। तो फिर कौन ऐसा विद्वान् पुरुष होगा जो कि इन सासारिक-सुखो और सासारिक पुद्गलो में फसेगा ? यानी बुद्धिमान् तो इनमें आसक्त और मूच्छित नही होगा।
( २५ ) , जं हंतव्यं तं नाभिपत्थए ।
आ०, ५, १६५, उ, ५ . टीका---जो पाप रूप-है, जो घात-रूप है, जो त्याज्य रूप है, उस विषय की ज्ञानी इच्छा नही करे । उसको तो दूर से ही छोड़ दे।
पाव कस्म नेव कुजा,न कारवेजा। ... मा०, २, ९७, उ, ६ . 1. टीका-पाप-कर्म, अनिष्ट कर्म, निदनीय कर्म न तो खुद को करना चाहिये और न दूसरो से करवाना चाहिये । क्योकि खराब काम इस-लोक मे और पर लोक में सर्वत्र और सर्वदा हानि पहुंचाने वाले ही होते हैं।
( ३७ )जरोवणीयस्स हुनस्थि ताणं ।
उ०,४, १ टीका-जवतक शरीर स्वस्थ है, तबतक धर्म का, पर-सेवा का, सयम का तथा इन्द्रिय-दमन का, आराधन कर लो। अन्यथा बुढ़ापे