SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 192
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १३०] 1 उपदेश-मूत्र F के समीप आने पर एवं कर्मों का उंदन होने पर कोई भी रक्षक नहीं बनेगा। (३८) । नाणी नो पाए कोई वि । आ०, ३, ११७,'उ, ३ - टीका--ज्ञानी अपनी आत्मा को कभी भी और किसी भी दशा में प्रमाद-ग्रस्त नही करे । प्रमाद एक महान शत्रु है । अतएव सदैव इसका ध्यान रखे। न सिया तोत्त गवेसए । उ०, १, ४० . . टीका--परम छिद्रान्वेषी-पर दोष दर्शक न बनो। पर दोषदर्शन से आत्म-पतन और वैर-विरोध बढता है। (४०) नो निहणिज वीरिय । { आ०, ५, १५२, उ, ३ टीका-तपस्या आदि निर्जरा के कामों में कपट का सेवन नही करना चाहिये । जीवन का प्रत्येक कार्य स्पष्ट और जल-कमलवत् निर्मल और निर्लेप होना चाहिये। जिससे अन्य संसारी जीव भी तत्त्वदर्शी पुरुष के जीवन से शिक्षा और आदर्श ग्रहण कर सके । । भूपनि विरुज्झेजा। - सू०, १५, ४ . . . टीका-प्राणियो के साथ वर-भाव नही रखना चाहिये । वैरभाव'जीवन में कटुता, अमैत्री, क्लेश और पापो की परम्परा लाने नाला है । वर-भाव से जीवन में कभी भी शांति मिलने वाली नहीं है।
SR No.010343
Book TitleJainagam Sukti Sudha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanrushi Maharaj, Ratanlal Sanghvi
PublisherKalyanrushi Maharaj Ratanlal Sanghvi
Publication Year1950
Total Pages537
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy