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1 उपदेश-मूत्र
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के समीप आने पर एवं कर्मों का उंदन होने पर कोई भी रक्षक नहीं बनेगा।
(३८) । नाणी नो पाए कोई वि ।
आ०, ३, ११७,'उ, ३ - टीका--ज्ञानी अपनी आत्मा को कभी भी और किसी भी दशा में प्रमाद-ग्रस्त नही करे । प्रमाद एक महान शत्रु है । अतएव सदैव इसका ध्यान रखे।
न सिया तोत्त गवेसए ।
उ०, १, ४० . . टीका--परम छिद्रान्वेषी-पर दोष दर्शक न बनो। पर दोषदर्शन से आत्म-पतन और वैर-विरोध बढता है।
(४०) नो निहणिज वीरिय ।
{ आ०, ५, १५२, उ, ३ टीका-तपस्या आदि निर्जरा के कामों में कपट का सेवन नही करना चाहिये । जीवन का प्रत्येक कार्य स्पष्ट और जल-कमलवत् निर्मल और निर्लेप होना चाहिये। जिससे अन्य संसारी जीव भी तत्त्वदर्शी पुरुष के जीवन से शिक्षा और आदर्श ग्रहण कर सके । ।
भूपनि विरुज्झेजा।
- सू०, १५, ४ . . . टीका-प्राणियो के साथ वर-भाव नही रखना चाहिये । वैरभाव'जीवन में कटुता, अमैत्री, क्लेश और पापो की परम्परा लाने नाला है । वर-भाव से जीवन में कभी भी शांति मिलने वाली नहीं है।