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क्रोध-सूत्र
कोहो पीई पणासेह।
द०, ८,३८ टीका-क्रोध, प्रेम का और मित्रता का नाश करता है। क्रोध से हिंसा की, अविवेक आदि दुर्गुणो की उत्पत्ति होती है ।
उवसमेण हणे कोहं।
८०,८,३९ टीका-शाति गुण से क्रोध को हटाना चाहिये । शाति के नल पर हिंसक से हिंसक प्राणी भी और विरोधी से विरोधी मनुष्य भी बय में हो जाता है।
कोहं असच्चं कुग्वेज्जा ।
उ., १, ३४ टीका-सदैव क्रोध को दवाते रहना चाहिये। क्रोध का जड़भूल से नाश हो ऐसा प्रयत्न करते रहना चाहिये । क्योकि क्रोव वैरविरोध का मूल है।
कलहं जुद्धं दूरओ परिवज्जए।
६०, ५, १२, उ, प्र, टीका-हित को चाहने वाला पुरुष क्लेश को, वाक्युद्ध को और अन्यविध लड़ाई को दूर से ही छोड़ दे। यानी उसके समीप नहीं जावे।