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सूक्ति-सुधा]
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प्रासुरत्तं न गच्छिज्जा, सुच्चाणं जिण-सासगां।
द०, ८, २५, टीका-जिन-शासन यानी जैन धर्म के सिद्धान्तों का रहस्य समझ कर कभी किसी पर क्रोध नही करे । क्रोध विवेक को भ्रष्ट करने वाला है, बुद्धि को उलझन में डालने वाला है, प्रामाणिकता और अप्रामाणिकता का भेद नही करने वाला है । क्रोध कलह को पैदा करने वाला है और अत मे दुर्गति का दाता है।
नहुमुखी कोवपरा हवन्ति ।
. उ०, १२, ३१ टीका-मुनि, आत्मार्थी कभी क्रोव नही करते है। संयमी कषाय-भाव से दूर ही रहते है। .
दुविहे कोहे-पाय पइदिए चेव,
पर पइहिए . चेव ।
ठाणां०, २रा, ठा, उ, ४, ६ । - टीका-क्रोध दो प्रकार का कहा गया है-१ आत्म प्रतिष्ठित और २ पर-प्रतिष्ठित । स्वभाव से ही आत्मा में उत्पन्न होने वाला क्रोध तो आत्म-प्रतिष्ठित है और बाह्य-कारणो से आत्मा में उत्पन्न होने वाला क्रोध पर-प्रतिष्ठित है।