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हिंसा-सूत्र,
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द०, ६, ११
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टीका - प्राणियो का वध करना, मन, वचन और काया से जीवों को कष्ट पहुँचना घोर पाप है
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( १ )-- पाणि वहं घोरं ।
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अजं चरम णो अपाण भूयाई हिंसइ । द०, ४, १ -
टीका - जो अयत्ना से 'यानी अविवेक से और उच्छृंखलता से "चलता है, उसको प्राणियों की उसके द्वारा भले ही हिंसा न होती हो तो भी प्राणियो को मारने का पाप लग जाता है ।
(a) अजयं भुजमागो श्र पाण भूयाई हिंस | द०, ४, ५
टीका - जो अयत्ना से, अविवेवक से और लोलुपता से, भोजन करता है, उसको प्राणियो की उसके द्वारा भले ही हिसा न होती हो तो भी प्राणियों को मारने का पाप उसको लग जाता है ।
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हिंसन्नियं वाण कहं करेज्जा ।
सू०, १०, १०
टीका-जिन कथा - वार्त्ताओ से हिंसा पैदा होने की सम्भावना 'जनसे हिंसा को अर्थात् पर पीडन को और गरीबो के शोषण