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सूक्ति-सुधी ]
[ २२९ -
को उत्तेजना मिलती हो, ऐसी कथा- वार्त्ताओं से तथा चर्चाओ से
दूर रहे |
(५)
न हुं पाणं वह अंशु जाणे, मुच्चेज्ज कयाइ सव्व दुक्खायां ।
उ०, ८, ८
टीका --- प्राणियों के प्राणो के वध की, उनको नाश करने की अनुमोदना करने वाला मनुष्य कभी भी सम्पूर्ण दुखों से छुटकारा नही प्राप्त कर सकता है । ऐसा मनुष्य कभी मुक्ति नही प्राप्त कर सकता है ।
( ६ ) किं हिंसाए पसज्जसि । उ०, १८, ११
टीका - हिंसा में क्यो आसक्त होते हो ? हिंसा कदापि सुख की देने वाली नही है । हिंसा राग और द्वेष को ही पैदा करने वाली है । हिंसा दुःख का ही मल है ।
( ७ )
व पंडिए अगणि समारभिज्जा ।
सू०, ७, ६
टीकापडित मुनि, आत्मज्ञ पुरुष अग्नि का समारम्भ नही करे । यानी सम्यक्-दर्शनी और श्रावक आदि मनुष्य बड़े २ मील, कारखाने आदि रूप अग्नि का समारम्भ नही करे ! क्योकि इनमें त्रस, स्थावर जीवो की हिंसा के साथ साथ मनुष्यों का शोषण भी होता है तथा साथ में नैतिक पतन भी होता है ।