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[कषाय-सूत्र (२४) उक्कसं जलणं णूम, मज्झत्थं च विगिंचए ।
सू०, १, १२, उ, ४ टीका-आत्मा का हित चाहने वाला पुरुष, क्रोध. मान, माया और लोभ का त्याग कर दे । कषाय के त्याग मे ही आत्मा का अमर सुख रहा हुआ है।
(२५) णो कुज्झे णो माणि ।
सू०, २, ६ उ, २ टीका-न तो क्रोध करे और न मान करे । आत्मार्थी का यही मार्ग है । परमार्थी का यही जीवन-व्यवहार है ।
(२६ ) . . कोई माग ण पत्थए ।
सू०, ११, ३५ ।। . . टीका-क्रोध और मान को सर्वथा छोड़ दो। क्रोध नाना पापों को लाने वाला है । यह विवेक, समता, सद्बुद्धि आदि गुणों का नाश करने वाला है। इसी प्रकार मान भी सभी गुणो का नाश करने वाला है । आत्माकी उन्नति को रोक कर उसे पीछे धकेलने वाला है।
(२७) जे कोह देसी से माण दंसी।
___ मा०, ३, १२६, उ, ४ टीका--जो क्रोधी है, वह मानी मी है ही। जिसके हृदय में क्रोध का निवास है, उसके हृदय मे मान भी अवश्य है। क्रोध और मान का परस्पर मे अविनाभाव सम्बन्ध समझना चाहिये। । '