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[शील-ब्रह्मचर्य-सत्र
टीका-ब्रह्मचारी को स्त्री के गरीर से भय बनाये रखना चाहिये । मन, वचन और कायासे स्त्रीकी संगतिसे दूर रहना चाहिये। स्त्री-सगति तत्काल विकार को पैदा करने वाली होती है, अतः इससे दूर ही रहे। . . - .., ...5
( २९ ) . . . . . . .:: 5 .. नाइमत्तं तु भुजिज्जा चम्भचेर रमो। .. .
उ०, १६, ८
., टीका-ब्रह्मचर्य में अनुरक्त पुरुष, ब्रह्मचर्य की साधना वाला परिमित, सात्विक आहार करे । प्रमाण से अधिक और वर्जनीय आहार नही करे।
(३०)
. . , . णो निग्गंथे पणीय आहारं आहारे जा।
उ०, १६, ग, सा० ।। . . ' ' टीका-जो निर्ग्रन्थ है, जो ब्रह्मचारी है, जो मुमुक्षु है, उसको अत्यत सरस और कामोद्दीपक आहार नही करना चाहिये । यथा आहार तथा वृति के अनुसार सरस आहार ब्रह्मचर्य के लिए घातक है।
( ३१ ) "
रूवे विरत्तो मणुषो विसोगो, : - . , . 11. , , न लिप्पए भवमोवि सन्तो।
' उ०, ३२, ३४ )....... .. टीका-रूप से विरक्त यांनी स्त्री सौंदर्य के देखने से विरक्त, ऐसा पुरुष शोक रहित होता है। समाधिमय और स्थितप्रज्ञ होता है, तथा इस ससार में रहता हुआ भी पाप-कर्मों से लिप्त नहीं होता है।
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