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[कर्मवाद-मूत्र टीका- अगुभ-योग वाले प्राणी यानी अनुभ-प्रवृत्तियां, वाले प्राणी कर्मो से सबंवित होते रहते है। उनके कर्मों का निरंतर यायब होता ही रहता है।
(९)
कम्मं च जाइ मरणस्स मूलं ।
उ०, ३२, ७ टीका--कर्म से ही जन्म और मृत्यु के दुख उठाने पड़ते हैं। जन्म-मृत्यु का मूल कर्म ही हैं।
(१०) संसरइ सुहा सुहेहिं कम्मेहिं ।
उ०, १०, १५ टीका-शुभ और अशुभ कर्मों के बल पर ही, जीवन और मरण का, सुख और दुख का, उत्पत्ति और विनाग का चक्कर चलता है।
(११) थाहा कस्मेहिं गच्छई।
उ०, ३, ३ टीका-प्रत्येक बात्मा स्व-कृत गुम और बगुभ कर्मों के अनुसार ही सुख और दुःख का भागी वनता है । मुल में कर्म ही मुखदुख के कता है। अन्य तो निमित्त मात्र है।
(१२) कम्मुणा उवाही जाय।
मा०, ३, ११०, उ, १ टीका--कर्मों से ही यानी अशुभ कार्यों से ही, जन्म, मरण, वृद्धत्व, रोग, नानापीड़ाऐं, विषम सयोग-वियोग, भव-भ्रमण बादि उपाधियां पैदा हुया करती है।