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सूक्ति-सुधा ]
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टीका - अपने किये हुए कर्मों को भोगे बिना उनसे छुटकारा नही मिल सकता है । इसलिये पाप कर्मो को त्याग कर, पुण्य कर्मों का अर्थात् शुभ कर्मों का ही आचरण करना चाहिये ।
( ५ ) कस्माणि बलवन्ति हि ।
उ०, २५, ३०
टीका - कर्म ही बलवान् है । कर्मो के उदय होने पर वृद्धि और वल, धन और जन, सुख और सुविधा, कर्मानुसार हो जाते है | पुण्य कर्मों के उदय से अनुकूल सयोगो की प्राप्ति होती है और पापमय कर्मों के उदय से प्रतिकल सयोगो की प्राप्ति होती है ।
( ६ ) कम्म च मोहप्प भवं ।
उ०, ३२, ७
टीका -- कर्म ही मोहको उत्पन्न करता है, यानी द्रव्य - आश्रव से भाव-आश्रव होता है, और भाव-आश्रव से द्रव्य आश्रव होता है ।
( ७ )
गाढा य विवाग कम्मुणो ।
उ०, १०, ४,
फल महान कटू होता है, इसलिये आश्रव को यानी प्रवृत्ति से बचना चाहिये ।
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टीका——कर्मों का त्रास कारी होता है, रोकना चाहिये । पाप
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( ८ )
कम्मे हिं लुपति पाणिणो । सू० २, ४, उ १
भयंकर रूप से कर्म-द्वार को