________________
कर्मवाद-सूत्र
रागो य दोसोऽवि य कम्मवीय ।
उ०, ३२, ७ टीका-राग और द्वेष, इष्ट पदार्थो पर आसक्ति, प्रिय पदार्थो पर मुर्छा और रति भाव, इसी प्रकार अप्रिय पदार्थो पर घृणा, इर्षा __ और अरति भाव ही कर्म के मूल-बीज है ।
पदुद्द चित्तो यो चिणाइ कम्म ।
उ०, ३२, ५९ टीका--मूर्त रूपसे, बाह्य रूप से, शरीर द्वारा कोई कार्य नहीं करने पर भी यदि चित्त मे द्वेष भरा हुआ है, तो ऐसा प्राणी भी कर्मों का बध करता रहता है । निस्सदेह कर्मों के बधने और छुटने में मन की क्रिया का यानी चित्त की भावना का बहुत बड़ा सबध रहा हुआ है।
कडाण कम्माण न मोक्खो अत्यि।
उ०, १३, १० टीका-बाघ हुए कर्मो को भोगे विना उनसे मोक्ष यानी छटकारा नही मिल सकता है । इसलिये कर्मों की निर्जरा के लिये तप, सयम, दया, दान, परोपकार, सेवा आदि का आचरण जीवन में अति आवश्यक है।
कहाण कम्माण न मुक्ख अस्थि ।
उ०, ४, ३