________________
सूक्ति-सुवा]
[.१९६
( १३) इहं तु कम्माई पुरे कडाई।
उ०, १३, १९ टीका-यहाँ पर जो कुछ भी सुख-दुःख मिलता है, वह सब पहिले किये हुए कर्मों का ही फल है।
(१४) सकम्म वीओ अवसो पयाइ, परं भवं सुंदर पावगं वा।
उ०, १३, २४, टीका-यह जीव एक तो आप स्वय और दूसरे कर्म को लेकर कैदी के समान परवशता को प्राप्त होता हुआ कर्मानुसार परलोक में या तो सुन्दर स्थान को अर्थात् देवगति आदि को-अथवा पाप स्थान को यानी नरक आदि को जाता है । यथा कर्म तथा गति अनुसार स्थिति को प्राप्त होता है।
(१५) असुहाण कम्माणं निजाणंपावगं
उ०, २१, ९ टोका-अशुभ कर्मों का अन्तिम फल निश्चय मे पाप रूपी होता है, महान् वेदना रूप ही होता है ।
( १६ ) अनिग्गहप्पा य रसेसु गिद्धे, न मुलश्रो छिदइ वन्धणं से।
उ०, २०, ३९ दीका-जो आत्मा निर्वल होकर इन्द्रियो के अधीन हो जाता है तथा रसो मे मुच्छित हो जाता है, वह राग द्वेष जनित कई बधन का उच्छेद जड-मूल से नही कर सकता है।