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[कर्मवाद-सूत्र
(१७) कत्तार मेव अणुजाइ कम्मं ।
उ०, १३, २३, टीका--जो जीव कर्मों का वध करता है, वे कर्म सुख दुख देने की शक्ति को अर्थात् विपाक-शक्ति को साथ में लेकर ही उस जीव के साथ साथ जाते है । कर्म परमाणु जीव-कर्ता के अनुयायी होते है।
(१८) कम्मुणा तेण संजुत्तो गच्छई उ परं भवं ।
उ०, १८, १७ टीका-मृत्यु प्राप्त होने पर जीव केवल कर्मो से-यानी पापयुण्यो से सयुक्त होता हुआ ही पर-भव को जाता है। धन-वैभव, कुटुम्ब आदि तो सब ज्यो के त्यो यही पर रह जाने वाले है ।
अज्झत्थ हे निययस्स वन्धो, संसार हे च वयन्ति बन्छ ।
उ०, १४, १९ टीका- अध्यात्म हेतु यानी मिथ्यात्व, प्रमाद, कषाय, अशुभ योग और अव्रत, ये वन्ध के कारण है । और यह बन्ध ही ससार को बढाने वाला है । ऐसा महर्षि, सन्त, महात्मा गण कहते है ।
(२०)
अमिरगुम बाडेहिं मूच्छिए, तिन्वं ते कस्मेहिं किच्चती।
सू०, २, ७, उ, १ । टीका-जो पुरुप मायामय कामो मे सलग्न है, माया मे मूच्छित है, वे कर्मों द्वारा अत्यन्त पीडित किये जाते है। उनको घोर दुख उठाना पडता है ! सुख उनको मिल ही नहीं सकता है।