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, 'सन्दानुलक्षी अनुवाद ]
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५५६--विरक्ति भावना से देवता मनुष्य और तिर्यच सबधी काम-भोगो
पर शीघ्र ही वैराग्य उत्पन्न हो जाता है। ५५७-न तो अपनी आत्मा को दुखी करो और न दूसरे की आत्मा को . दुखी करो।
५५८--अपनी पूजा-प्रतिष्ठा के प्रार्थी मत बनो। ५५९--आत्मा अमूर्त स्वरूप वाली है, इसीलिये इन्द्रियो द्वारा ग्राह्य
नहीं है । अमूर्त स्वरूप वाली होने से ही निश्चय पूर्वक वह
नित्य है। ५६०-आत्म-वल का विनाश मत करो। । ५६१-स्तन वाली, चचल चित्त वाली ऐसी राक्षसी समान स्त्रियो में
गृद्ध मत होओ। ५६२--ससार की इच्छानुसार मत विच।। ५६३-स्त्रियो के साथ विहार मत करो। ५६४-बार बार जीवन प्राप्त होना सुलभ नही है ।
५६५-- प्रत्याख्यान से आश्रव के द्वार बंद हो जाते है। ५६६-कर्मो से पीडित प्राणी के लिये दुःखो से छुडाने में कोई भी
समर्थ नही है। ५६७---यह शरीर पीछे या पहले छोड़ना ही होगा, इसकी स्थिति फेन
या वुल वुले के समान है। ५६८-~-जो मनुष्य पापकारी है, वे घोर नरक में पडते हैं । ५६९–प्रतिक्रमण से व्रतो के छिद्र ढंक जाते हैं। ५७०-प्रतिकूल वृत्ति वाला और समझदारी नही रखने वाला अवि
नीत होता है। ५७१-~-पहले ज्ञान और पीछे दया।