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सूक्ति-सुधा ]
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टीका — जिनदेव अर्थात् अरिहत रूप सूर्य, संपूर्ण ससार में मोहांघकार से आच्छादित जीवो के लिये ज्ञान और चारित्र के प्रकाश को प्रकट करते है, इसी प्रकार (भविष्य में भी अनन्त अरिहत होंगे, जो कि इसी रीति से ज्ञान और चारित्र का प्रकाश करते रहेगे ।
( ८ )
मुहादाई मुहाजीवि दो वि गच्छति सुग्गई ।
द०, ५, १००, उ, प्र
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टीका – निस्वार्थ भाव से लेने वाले, और निःस्वार्थ भाव से ही देने वाले, दोनो ही सुगति को प्राप्त होते हैं । नि. स्वायं सेवा ही आदर्श व्रत है । निस्वार्थ सेवा में किसी भी प्रकार की आशा नहीं होती है, कोई आसक्ति या वासना अथवा विकार नही होता है । इसीलिये यह उच्च भावना धर्म ध्यान या शुक्ल ध्यान रूप होती है ।
( ९ )
से ये खु मेयं ण पमाय कुज्जा । सू०, १४, ९
टीका—“इसमें मेरा ही कल्याण है" ऐसा सोच-विचार कर, आत्मार्थी प्रमाद का सेवन नही करे । जो प्रमाद या आलस्य नहीं करेगा, उसी को लाभ होगा। अतएव प्रमाद के स्थान पर कर्मण्यता को ही जीवन मे स्थान देना चाहिये ।
( १० ) चरित संपन्नयाप, सेलेसी भांव जणयइ ।
उ०, २९, ६१र्वांग,
टीका — चारित्र - संपन्नता से जीवन में निर्मल गुण पैदा होते है । सात्विक वृत्ति से कर्मण्यता आती है । इस प्रकार शैलेनी भाव उत्पन्न__