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[प्रशस्त-सूत्र
(४) आणाए, अभि समेच्चा अकुमओभयं ।
आ०, १, २२, उ, ३ टीका-जैसा वीतराग देव ने फरमाया है, उसी के अनुसार जो जानता है, जो श्रद्धा करता है, तदनुसार जो आचरण करता है, तदनुसार जो प्ररूपणा करता है, उसको संसार का भय कैसे हो सकता है ? उसको ससार का मिथ्या-मोह कैसे आकर्षित कर सकता है ? वह पुरुष कैसे कर्त्तव्य-मार्ग से विचलित होकर भोगो में फस सकता है ?
सवयो अप्पमत्तस्स नत्थि भयं ।
आ०, ३, १२४, उ, ४ टीका-जो प्रमादी नही है, यानी जो विषय-विकार, वासना, कृष्णा आदि में फंसा हुआ नही है, उसको किसी भी तरह से भय, चिन्ता, अशांति, दुःख आदि नही उत्पन्न होते है । अप्रमादी को किसी भी ओर से भय नही है।
श्रावट्ट सोए संग मभिजाणइ ।
आ०, ३, १०८, उ, १ टीका-जो सम्यक् दर्शी है, वह आवर्त यानी जन्म, जरा, मरण सादि रूप संसार को और श्रुति रूप शब्द आदि को तथा काम-गुण रूप विषय को इच्छा को-इन दोनों के सम्बन्ध को भली-भाति जानता है। और ऐसा जानने वाला ही ससार के चक्र से तथा काम-गुणो से मुक्ति प्राप्त कर सकता है ।।
(७) जिण भक्खये करिस्सर उज्जोयं सच लोगम्मि पाणिणं ।
उ०, २३, ७८