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टीका - - लोक - रुचि के अनुसार आचरण मत करो । - लोक तो गाड़रिया प्रवाह है, लोक तो दो रंगी चाल वाला है । लोक -, समूह तो सस्कारो और वातावरण को गुलाम होता है । अतएव जिसमे अपना कल्याण प्रतीत होता हो, अपना स्वतंत्र विकास होता हो उसी मार्ग का अवलबन लेना चाहिये । लोक-भावना के स्थान पर कर्त्तव्य-भावना प्रधान है ।
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प्रशस्त सूत्र
( १ )
नो लोगस्सेसणं चरे । आ०, ४, १२८, उ, १
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टीका- -जो बुद्ध होते हैं, जो ज्ञानी होते है, जो तत्व दर्शी होते है, वे ही धर्म और चारित्र का सम्यक् प्रकार से ज्ञान रखने वाले होते है । धर्म के गभीर रहस्य का सूक्ष्म स्वरूप उनसे छिपा हुआ नही रह सकता है ।
( २ )
बुद्धा धम्मरुल पारगा ! आ०, ८, १८, उं, ८ '
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( ३ ) नाणी तो परिदेवए ।
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उ०, २, १३ }
टीका -- ज्ञानी कभी विषाद यानी / खेद अथवा शोक नही करता है । ज्ञानी जानता है कि खेद करना प्रमादजनक है, ज्ञान-नाशक
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है, निरर्थक है, आर्त्तध्यानं है और शक्ति विनाशक है ।
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