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प्रकीर्णक-सूत्र
(१) रमा अज्ज वयणम्मि, तं वयं बूम माहणं ।
उ०, २५, २० टीका-जो आर्य वचनो में, सत्य, अहिंसा, अनुकम्पा, दान, शील, तप, भावना आदि में रमण करता है, विश्वास करता है, तदनुसार आचरण करता है, उसी को हम ब्राह्मण कहते है ।
(२) राग दोस भयाई य, तं वयं वूम महाणं!
उ०, २५, २१ टीका--जो राग, द्वेष और भय आदि दुर्गुणो से रहित है उसीको हम ब्राह्मण कहते हैं । आचरण से और गुणो से वर्ण-व्यवस्था है, न कि जाति से और जन्म से । ऐसा श्री जैन धर्म का आदेश है।
कन्मुणा उम्भणो होह, कम्मुणा होह खत्तियो।
उ०, २५, ३३ टीका-कर्म से ही (यथा नाम तथा गुण होने पर ही) ब्राह्मण होता है, और कर्म से ही-आचरण से ही क्षत्रिय होता है । जो क्षमा, दान, ध्यान, सत्य, सरलता, धैर्य, ज्ञान-विज्ञान, दया, ब्रह्मचर्य, आस्तिकता आदि का आचरण करता हो तो वह चाहे किसी भी जाति अथवा वर्ण में पैदा हुआ हो, तो भी ब्राह्मण ही कहा जायगा । और