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( १५ ) विसएस मणुन्नेसु पेमं नाभिं निवेसए ।
द०, ८, ५९
टीका - इन्द्रियों के विपयो की ओर अथवा भोगोपभोग पदार्थों की ओर एव विषय-वासना के पोषण की ओर मनको नही जाने देना चाहिये । विकारो की ओर मानसिक आकर्षण भी नही होने देना । चाहिये । आसक्ति या अनुराग-भाव को मनोज्ञ - विषयो मे पैदा नही हाने देना चाहिये |
( १६ )
नारीसु नोवगिज्झज्जा, धम्मं च पेललं गच्चा ।
उ०, ८, १९ :
[ शील- ब्रह्मचर्यं सूत्र
टीका — धर्म को — दान, शील, तप, भावना को ही सुन्दर जान
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कर, कल्याणकारी जान कर, स्त्रियोमे कभी भी गृद्ध न बनो, मूच्छित वनो । ब्रह्मचर्यं को ही सर्वस्त्र समझो । इसको ही कल्याण का मूल आधार समझो ।
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( १७ )
न य रुसु मणं करे ।
द०, ८, १९
टीका -- रूपवती सुन्दर स्त्रियो को देख कर मन को चल नही करना चाहिये । विषय विकार की ओर से मन रूपी घोड़े को ज्ञान रूपी लगाम से रोककर ध्यान रूपी क्षेत्र में, चिंतन-मनन रूपी मैदान मे और सेवामय आगण मे लगाना चाहिये ।
( १८ ) निव्विष्ण चारी श्ररए पयासु ।
आ०, ५, १५५, उ, ३
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